Friday 23 June 2023

भारत के प्रधानमंत्री का अमेरिका दौरा 🚁 #NarendraModiInUSA

श्रीकांत शर्मा जी लिखते हैं कि हर देश के इतिहास में कुछ ऐसे मोड़ आते हैं जब सारे ग्रह योग उसके अनुकूल हो जाते हैं।

भारत भी इस समय ऐसे ही ऐतिहासिक अमृत काल में है।

भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि बहुत तेजी से हो रही है।

विश्व का हर देश भारत को अपने साथ देखना चाहता है।

अमेरिका और उसके मित्र देश जापान और आस्ट्रेलिया आदि चाहते हैं कि भारत चीनी विस्तारवाद को रोकने में उनका साथ दें। चीन चाहता है कि भारत अमेरिका की गुटबाजी से दूर रहे और एशिया को अमेरिकी वर्चस्व से मुक्त कराने में उसका साथ दें। यूरोप चाहता है कि भारत यूक्रेन पर रूसी हमले की निंदा करें और रूस के विरुद्ध आर्थिक व कूटनीतिक लामबंदी में उसका साथ दें।

और तो और दक्षिणी गोलार्ध के देश चाहते हैं कि भारत उत्तरी गोलार्ध के देशों से जलवायु न्याय दिलाने में उनका साथ दें।

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिकी यात्रा इसी अनुकूल ग्रह योग में हो रही है। यह उनकी पहली राजकीय यात्रा है। अमेरिका की राजकीय यात्रा का न्योता राष्ट्रपति के विशेषाधिकार और अमेरिका की बहुत ही अंतरंग एवं संधिमित्र देशों के राष्ट्राध्यक्ष को ही दिया जाता है।

अमेरिका ने चीन को दुनिया की फैक्ट्री बनाकर एक ऐसा भस्मासुर तैयार कर लिया है जिसकी हाथों में ऐसी सप्लाई चैन है जिसके जरिए पूरी दुनिया में तैयार माल जाता है। महामारी के लॉक डाउन और यूक्रेन युद्ध से साबित हुआ कि सप्लाई चैन का चालू रहना कितना जरूरी है और एक ही सप्लाई चैन पर निर्भरता कितनी खतरनाक होती है। इसलिए अमेरिका और यूरोप हिंदचीनी देशों और भारत को supply-chain का विकल्प बनाना चाहते हैं। 

अमेरिका यूरोप के नेता अब अपनी कंपनियों को चीन छोड़ने के बजाय चीन के अलावा एक और देश में कारोबार की सलाह दे रहे हैं जिसका अर्थ हम भारत समझ सकते हैं।

हमारे भारत के पास ऐसे प्रशिक्षित लोगों की बड़ी संख्या है जो अमेरिका यूरोप की बड़ी-बड़ी कंपनियों को चलाते हैं।

चीन दुनिया की फैक्ट्री है तो भारत उसका डिजाइनर और संचालन केंद्र है जिसके सहारे दुनिया चलती है। 
मोदी की अमेरिका यात्रा पर चीन, रूस, यूरोप और शेष दुनिया की नजर लगी है । भारत की तरह यूरोप चीन से सीधे दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता लेकिन वह चाहता है कि भारत  यूक्रेन की अखंडता और प्रभुसत्ता पर हमला करने के लिए रूस की निंदा करें।

अमेरिका के ऊर्जा में आत्मनिर्भर बनने के बाद से सऊदी अरब चीन की तरफ झुकता जा रहा है क्योंकि चीन उसका सबसे बड़ा ग्राहक और निवेशक बन गया है। यूक्रेन पर हमले के बाद रूस और चीन के रिश्ते में गहराई आ गई है। ईरान रूस को ड्रोन बेच रहा है। तुर्कीय के राष्ट्रपति अर्दोगन और मुखर होकर अमेरिका की आलोचना कर रहे हैं। यानी कि चीन के नेतृत्व में एक नया अमेरिका विरोधी खेमा तैयार हो रहा है। जिसमें रूस के अलावा उत्तरी कोरिया, ईरान, तुर्की और सऊदी अरब शामिल हो गए हैं।

इन बदलते भू राजनीतिक समीकरणों में अमेरिका के लिए भारत की महत्ता और बढ़ गई है। अब देखना यह है कि मोदी भारत के अनुकूल परिस्थिति का कितना लाभ उठा पाते हैं और इस यात्रा में कितने सौदे कर पाते हैं। पिछली सदी के नौवें दशक में चीन भी ऐसे ही अनुकूल स्थिति में था जिसका लाभ उठाते हुए वह तानाशाही के बावजूद 4 दशकों के भीतर विश्व की दूसरी महाशक्ति बन गया।

यदि चीन की चुनौती का जवाब देना है तो आर्थिक शक्ति बढ़ाकर ही दिया जा सकता है जिसके लिए अमेरिका और यूरोप से निवेश एवं तकनीक चाहिए।

अमेरिका यदि सच में चीन पर अंकुश लगाना चाहता है तो उसे भारत को अपने रक्षा, सेमीकंडक्टर और स्वच्छ तकनीक उद्योगों का डिजाइन और निर्माण केंद्र बनाना होगा..

| शिव कांत शर्मा जी बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक रह चुके हैं। | 

लेख पढ़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!












































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